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वास्तु के सिद्धांत भाग-1
जैसा कि आप शीर्षक से समझ गये होगे कि घर के लिये वास्तु के कुछ बुनियादी सिद्धांतो पर रोशनी डालेगे जिनकी सहायता से आप अपने घर में होने वाले वास्तु दोषो का आंकलन स्वयं से कर सकेगे । क्योकि किसी भी भवन में बहुत सारे वास्तु सिद्धांतो का प्रयोग होता है, इसलिये हो सकता है कि इस लेख को कई भागों में प्रस्तुत करना पडे़ ।
आज के समय हर व्यक्ति किसी न किसी समस्याओं से जूझ रहा है, जिसके लिये उसका कर्म भाग्य या वास्तु कारण हो सकते है, इन तीनों में सबसे आसानी से वास्तु को सुधारा जा सकता है । जो लोग वास्तु दोष से युक्त घर में एवं व्यवसायिक स्थल में रहते है, उन्हे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पडता है, लेकिन ऐसी कोई समस्या नही है जिसका समाधान नहीं हैं आवश्यक यह है कि आप किसी स्पेस्लिस्ट से मिलें जो कि आपकी परिसर में बिना तोड़-फोड़ किये केवल वस्तुओं के स्थान परिवर्तन एवं कुछ नए चल वस्तुओं के माध्यम से दोष को दूर कर सके, जो आपकी परेशानियों का कारण बने है मेरा यह कहना है किसी भी नए भवन या व्यवसायिक स्थल प्लांट इत्यादि कुछ भी लेने से पहले स्पेलिस्ट की सलाह जरूर लें । पुराने परिसरो को भी वास्तु अनुरूप ठीक करने प्रयास करें ।
भवन की आन्तरिक विभाजन
1. स्नान घर
2. शौचालय
3. आंगन
4. पशुशाला
5. बैठक
6. भोजन हाॅल
7. रसोई एवं भण्डार गृह
8. बालकॅनी/वरांडा
9. गैराज
1. स्नान घर - स्नान घर यानी जिसे गुसलखाना भी कहते हैं, घर की आवश्यकतानुसार बनाया जाता है । छोटे परिवार के लिए बडा़ स्नान घर । आधुनिक भवन विन्यास में स्नान घर के अंदर बाथ टब तथा दीवारों पर विभिन्न प्रकार के नल फव्वारे,गीजर तथा सीलिंग फैन लगाने की व्यवस्था भी की जाती हैं । स्नान घर के फर्श का बहाव जल निकास की दृष्टि से ऊंचा-नीचा होना चाहिए । पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें तो अच्छा हैं । स्नान घर के लिए उपयुक्त स्थान नैर्ऋत्य कोण या दक्षिण दिशा के मध्य होना चाहिए । गीजर आदि आग्नेय कोण की ओर लगाने चाहिए । ईशान एवं अग्नि कोण की तरफ स्नान घर कभी न बनाएं ।
2. शौचालय - शौचालय को सदैव नैर्ऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य बनाना चाहिए । शौचालय में म्गींनेज थ्ंद उत्तरी या पूर्वी दीवार पर लगाएं । पूर्वी दीवार पर अंदर की ओर रोशनदान होना भी आवश्यक है । शौचलय के पश्चिम में मुख्य भवन की दीवार नहीं होनी चाहिए अन्यथा दीवार पर संेध लगाकर चोर अंदर आ सकते हैं । शौचालय दो शीट या एक सीट वाला सुविधानुसार बनाया जा सकता हैं । शौचालय निर्माण इस ढ़ंग से करें कि घर में ही उसकी सफाई की व्यवस्था हो जाए, क्योंकि अब समय ऐसा आ गया है कि शौचालय साफ करने के लिए सफाई कर्मचारी की व्यवस्था नहीं हो पाएगी । आजकल ।नजवउंजपब थ्सनेी और सेनिटरीवे का चलन भी बढ गया हैं, यह ध्यान रहें कि ॅण्ब्ण् का जल निकास बहुत ही कुशल ढंग से हो ॅण्ब् का फर्श जमीन से थोड़ा ऊंचा हो तो ज्यादा अच्छा होता है । अधिकतर लोगों की पसंद बाथरूम के साथ ही शौचालय बनाने में होती है फिर भी शौचालय के बाहर बाथरूम न हो तो छोटे से वाश बेसिन की व्यवस्था अवश्य करनी चाहिए ।
3. आंगन - प्राचीन काल में कोई भी भवन बिना आंगन के नहीं बनता था परंतु आज के समय में जगह की कमी और अनेक बंदिशों के कारण छोटे-मोटे मकानों में आंगन रखना मुश्किल होता है । बहुमंजिला इमारतों में तो आंगन दुर्लभ हैं । छोटे भवनों में भी आंगन का प्रारूप भवन के मध्य खुले क्षेत्र में रख दिया जाता है । आंगन का निर्माण उत्तर या पूर्व की ओर रखें जिससे सूर्य का प्रकाश और प्राकृतिक ऊर्जा घर में अधिकाधिक प्रवेश कर सकें । आंगन की लम्बाई-चैड़ाई का भी एक गुणन चक्र होता है । अतः लम्बाई-चैड़ाई को जोड़कर 8 से गुणा कर दें । फिर उसमें 9 का भाग देने पर जो शेष बचे वह आंगन का शुभ और अशुभ फल होगा । जहां तक हो सके, आंगन मध्य में ऊंचा और चारों ओर से नीचा हों । मध्य में नीचा आंगन अशुभ होता है ।
4. पशुशाला - पशुशाला का उपयोग आधुनिक समय में सिर्फ ग्रामीण परिवेश के भवनों में ही हो सकता है । महानगरों में भी अब भुूमि की अप्राप्यता और घोडे़ आदि पशुओं की दुर्लभता के कारण पशुशाला गायब ही हो गई हैं । कुछ लोग अभी भी गाय, खरगोश या छोटा-मोटा पोल्ट्री फार्म, पक्षी-पालन का शौक रखते है । पशुशाला हमेशा उत्तर-पश्चिम यानी वायव्य कोण में ही होनी चाहिए । अगर उत्तर-पश्चिम में मुख्य भवन के बाहर जमीन उपलब्ध हो तो वहां पर छोटी-सी पशुशाला मुख्य भवन से बाहर बनानी जा सकती है ।
5. बैठक/ स्वागत कक्ष/ ड्राइंग रूम - किसी भी भवन में बैठक या स्वागत कक्ष सबसे महत्वपूर्ण स्थान है । छोटे से छोटे घर में भी लोग एक कमरे को स्वागत कक्ष अवश्य बनाते हैं । चाहे उसका बहुमुखी उपयोग डाइनिंग रूम और बेड़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़़रूम में भी करना पडे़ । स्वागत कक्ष में सदैव ही मसनद यानी दीवान, सोफा, आदि पश्चिम दिशा की ओर रखना चाहिए । उत्तर और पूर्व की जगह खुली होनी चाहिए । स्वागत कक्ष को भवन के वायव्य, ईशान अथवा पूर्व दिशा की ओर ही बनाना चाहिए । जहां तक हो सके किचन, शौचालय आदि स्वागत कक्ष से कुछ हटकर ही बनने चाहिए ।
6. भोजन कक्ष - प्राचीन काल की सभ्यमा के अनुसार पाकशाला यानी रसोई घर के अंदर ही भोजन किया जाता था । आज भी परम्परागत और धार्मिक सम्प्रदाय के लोग रसोई में ही जमीन पर बैठकर भोजन करना उपयुक्त मानते हैं । लेकिन आज के समय जब पार्टी डिनर और लंच की सभ्यता चल पडी़ है और कुर्सी मेज लगाकर छुरी-कांटो से भोजन किया जाता है, तो ऐसे में भोजन के लिए अलग कक्ष होना जरूरी हैं । भोजन कक्ष को दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) अथवा पूर्व या पश्चिम की ओर बनाना चाहिए । डाइनिंग टेबल आदि को दक्षिण-पूर्व में रखना चाहिए । कमरे के ईशान या उत्तर की ओर भोजन को संरक्षित करने वाले कूलिंग प्लांट, फ्रिज आदि भी उत्तर या पूर्व की ओर होने चाहिए ।
7. रसोई तथा भण्डार गृह - भवन अथवा फ्लैट या घर छोटा हो या बड़ा रसोई घर उसकी प्रधान आवश्यकता हैं । वास्तु नियमों के अनुसार रसोई घर को सदैव पूर्व या आग्नेय कोण की ओर पूर्व और आग्नेय कोण के मध्य में ही बनाना चाहिए । आग्नेय कोण सर्वश्रेष्ठ जगह है । अगर स्थानाभाव या मजबूरी के कारण किसी अन्य कोण या दिशा में रसोई घर बनाना पड़े तो वहां पर गैस या चूल्हा अग्निकोण या पूर्व और आग्निकोण में मध्य ही रखना चाहिए । कमरे के उत्तर और पूर्व की ओर खिडकियां अवश्य होनी चाहिए । म्गींनेज थ्ंद ठीक चूल्हे के ऊपर लगे तो अधिक उपयुक्त होता है । उत्तर और पश्चिम की ओर रसोई का भण्डार गृह फ्रिज और बर्तन आदि रखने की अलमारी बनायी जा सकती है । रसोई घर के ही दक्षिण-पश्चिम भाग में चावल, गेहूँ, आटा, दाल आदि रखने का छोटा-सा बंद कमरा बन जाए तो उपयुक्त रहेगा । खाद्यान्न सदैव ईशान और अग्निकोण के मध्य पूर्वी दीवार के सहारे रखने चाहिए । किचन से बहने वाले जल निकास के लिए, नालियों की व्यवस्था दक्षिण और पश्चिम या नैर्ऋत्य कोण की तरफ करनी चाहिए । स्वच्छ पानी के लिए छोटा-सा टैंक ईशान कोण में बनाना चाहिए । रसोई घर के बीचोचीच चूल्हा आदि नहीं रखना चाहिए ।
8. बालकॅनी - किसी भी भवन का सौन्दर्य, बालकॅनी अथवा छज्जे, गैलरी आदि के बिना अधूरा रहता हैं । वैसे भी सूर्य का प्रकाश, हवा के आकर्षण के लिए आवासीय भवनों में बालकॅनी का महत्व सर्वप्रथम है । बालकॅनी का उपयोग खुले स्थान के अंदर ही किया जा सकता है । बालकॅनी अथवा वराण्डे में प्रातःकालीन सूर्य की किरणें या पूर्व पश्चिम में चलने वाली हवाएं प्रवाहित होने लगें तो घर के सदस्यों का स्वास्थ्य अच्छा रहता है ।
बालकॅनी किस ओर बननी चाहिए इस पर हम विश्लेषण देते है:-
आमतौर पर प्रवेश द्वार और मुख्य द्वार के बीच में वराण्डा या छोटी सी बालकॅनी का महत्व बढता जा रहा है । अतः जहाँ तक हो सके प्रवेश द्वार के दाएं या बाएं पाश्र्व में बालकॅनी उपयुक्त रहती है । परंतु वास्तु नियमों के अनुसार -
यदि भूखण्ड पूर्वमुखी हो तो बालकॅनी उत्तर-पूर्व में बनानी चाहिए । उत्तर -पश्चिम में बालकॅनी ऐसे भूखण्ड में कभी नहीं बनानी चाहिए, इससे चोरों का भय रहता हैं ।
यदि पश्चिममुखी भूखण्ड हो तो बालकॅनी उत्तर-पश्चिम में बनानी चाहिए ।
यदि उत्तरमुखी भूखण्ड हो तो बालकॅनी उत्तर-पूर्व की ओर बनायी जा सकती है ।
दक्षिणमुखी भूखण्ड में बालकॅनी दक्षिण-पूर्व की ओर बनानी ठीक रहेगी ।
वास्तु नियमों के अनुसार वराण्डा या बालकॅनी भूखण्ड के मुख्य द्वार और प्रवेश द्वार पर अधिक उपयुक्त होती हैं । लेकिन प्रातःकालीन सूर्य के प्रकाश एवं प्राकृतिक हवा के प्रवेश हेतु बालकॅनी का झुकाव पूर्व या उत्तर की ओर हो सके तो सर्वोत्तम है ।
9. मोटर गैराज - जिस भूखण्ड में अधिक जगह है अथवा जो अमीर और अभिजात्य वर्ग का भवन हैं उसमें गैराज एक प्रमुख आवश्यकता है । आम तौर पर गैराज को उत्तर-पश्चिम अथवा दक्षिण पूर्व की ओर बनाना चाहिए । गैराज अगर सर्वेट क्वार्टर के साथ हो तो ज्यादा उपयुक्त रहता है । अन्यथा प्रवेश द्वार या मुख्य द्वार के निकट ही गैराज की बनावट सुविधाजनक होती हैं । गैराज को जरूरत के मुताबिक छोटा या बडा़ बनाया जाता है । जहां तक हो सके भवन के बाहर खाली स्थान के अंतिम छोर पर गैराज बनाना ठीक रहता है । वास्तु नियमों को ध्यान में रखें तो गैरात के लिए निम्नलिखित सिद्धंात लागू होगा:-
यदि मुख्य द्वार पूर्व की ओर हो तो दक्षिण-पूर्व दिशा में ।
यदि मुख्य द्वार उत्तर की ओर हो तो उत्तर-पश्चिम दिशा मेें ।
यदि मुख्य द्वार पश्चिम की ओर हो तो दक्षिण-पश्चिम दिशा मेें ।
यदि मुख्य द्वार दक्षिण की ओर हो तो दक्षिण-पश्चिम दिशा मेें ।
गैराज की छत और सामने की दीवारें अधिक भारी नहीं होनी चाहिए । किसी प्रकार का आग्नेय पदार्थ या बिजली के स्विच आदि भी गैराज के अंदर नहीं रखने चाहिए । मुख्य द्वार खुला अथवा लोहे की जालीदार शीट से या शटर से गैराज को सुरक्षा प्रदान होती हैं । गैराज का मुख कभी भी भवन से बाहर की ओर या मुख्य मार्ग की ओर नहीं हो चाहिए ।
हमने वास्तु के सिद्धांत को 31 भागो में विभाजित किया है इस अंक में 9 भागो में चर्चा कर रहे थे । इस लेख के माध्यम से वास्तु की सम्पूर्ण जानकारी देना संभव नही हैं, जल्द ही इस लेख का अगला अंक आपके सामने प्रस्तुत करूगी । कृपया अपना साथ बनाये रखे एवं दें मुझे म.उंपस या डमेेंहम के माध्यम से फिड़बैक अवश्य दें ।
प्रभु श्री राम की कृपा आप सभी पर बनी रहे ।
धन्यवाद
रुपाली श्रीवास्तव
सेल न्यूूमेरोलाॅजिस्ट
एस्ट्रोलाॅजर
उलअपमू/बमससतनचंसप
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